Sunday, February 2, 2014

राब्ता

राब्ता टूट गया तेरी हंसी कि खनखनाहट से
तेरी उन नम आखों कि नमकीनियत चखी नहीं जाती
तेरे मिसरी से लब जो घुल जाते थे लबो पे , खुर्द फर्श से सूख गए है
वो जो कान में बाली लटकती थी तेरे
वो थम गई है किसी बेज़ार दरख्त कि तरह

तू क्यों अटकी हुई है सीने में ,
एक साँस बहार छोडू तो निकल क्यों नहीं जाती।


लिबास

सुना है कोई और लिबास पेहेन लिया तूने ,
सुबह से शाम तक उस तंग लिबास में बैठा है 
मै तेज़ धार का खंजर लाया हू 
कहे तो चीर दू इस लिबास को 
या अपने इस एह्सास को फाना कर दू। 

कहा गई वो तेरी नर्म खामोशी 
मेरे कानो तक तो नहीं पहुची ,
कही ऐसा तो नहीं ,उतारते है हार जैसे 
मेरी उस खामोशी को तूने किसी और को भेट दिया ?

बे मायने से येह सवाल खुद से कर मै 
थोडा  रुकता हूँ  मुस्कुराता हूँ  बहकता हूँ 
फिर से मिल जाता हूँ उसी रंग में जो तूने ओढ़ रखा है 
ढूंढ़ने खुद को 
शायद मिल जाये तू।  

घर

वो बूढ़ा घर अब नहीं रहा
दीवारो पे वो झुर्रिआ भी अब नहीं  बची
वो पुराना लोहे का कुंडा भी अब खड़खड़ाता नहीं

रसोई में फीकी सी चीनी पड़ी है बंद डिब्बे में ,
गीली मिटटी से अब नमी उड़ गई है, फूल झड़ गए सब

मै क्या करू अब जाकर वहाँ ?
वो बूढ़ा घर अब मुझे बुलाता नहीं। 

Wednesday, April 18, 2012

व्हो बच्चे

जहा पेट की आग से दिए जले होंगे
वहा आज कितने आँसू भी ढले होंगे 
नम आखों ने जब गला सुखा दिया होगा 
व्हो बच्चे फिर भूखे सो गए होंगे . 

जब धान का हिस्सा नहीं मिला होगा 
जहा साल में हल  नहीं चला  होगा
जब धरती में सल पड़े होंगे
व्हो बच्चे फिर भूखे सो गए होंगे

जब चूल्हा चाँद सा ठंडा रहा होगा 
तब माँ का कलेजा ही बस जला होगा 
मजबूर अखो से न बोल तब फूटे होंगे 
व्हो बच्चे फिर भूखे सो गए होंगे........



Tuesday, April 3, 2012

कब तक

वो एक झूट से बना हुआ ,
सच के लिबास में खड़ा हुआ ,
जो न साथ देता है ,
और छोड़ता नहीं
जो खुश है अपनी दुनिया में .
इश्तिहार सा रंगीन ,
खबर सा बेरंग
रोज़ आता है मेरे ख्याल के घर .
आखिर कब तक ?

Monday, April 2, 2012

क्यों ?

राशन के दुकान पर दो भूखी आखो से चावल आटे दाल के रंगों को  तोलता हुआ गरीब
कुछ ऐसे  सवाल करता है खुद से ....येः भूख राशन कार्ड देख  कर क्यों  नहीं मिटती ?

नरम गीली मिटटी पर पैर धासे खड़े हुए व्हो मासूम आखे कुछ रंग भरी पतंगों को  देखती है
पूछती है ...रंगों की कीमत क्यों होती है ....?

व्हो हर रोज़ एक हे साड़ी में दिखने वाली , जब चलती है पथरीली सड़क पर
तो अचानक सोच उठती है - उस के इन कदमो से कोई खनक क्यों नहीं होती ?


क्यों ?

Saturday, July 24, 2010

तुम

तुम मेरी कविता बन जाओ ,
सुर सरगम संगीत में मन के ,कुछ ऐसे घुल जाओ
तुम मेरी कविता बन जाओ .
इस विस्मित जग में जब तुमको ,
पलक झपकते मैंने देखा ..
स्वर्णमई सी तुम लगती थी ..
बीच में थे संकोच की रेखा ..
इस संकोच की रेखा को कुछ पार करू मै ,
कुछ तुम कर जाओ ..
तुम मेरे कविता बन जाओ . .
नाम नहीं है इस रिश्ते का ,
जो तुम से जोड़ा है मैंने ,
और कभी जब साथ मिलेंगे
और कहेगा जग येः कहेने ,
नामो रिश्तो के बंधन को ,
कुछ तोडू मै कुछ तुम ठुकराओ ..
तुम मेरी कविता बन जाओ ..